सूर्यकान्त गुप्ता, 'कांत',
छप्पय छंद
सकन काय नइ साध, साधना कसके चाही।
सागर ज्ञान अगाध, गुरू बिन कोन बताही।।
कण कण माँ भगवान, रथे दुनिया ए कहिथे।
देखावय वो नैन, फेर काकर तिर रहिथे।।
बस तँय तो भगवान ला, हिरदे मा बइठार ले।
परसेवा उपकार कर, जिनगी 'कांत' सँवार ले।।
साधन यातायात, बाढ़ गे हावय जतका।
जावत हवैं झपात, मौत के मुँह मा कतका।।
ददा दाइ के 'कांत', घलो गलती ए गउकिन।
करथें पूरा माँग, जउन लइकन के कउखिन।।
बिगड़े लाड़ दुलार मा, फोकट प्रान गँवात हें।
पीरा ला माँ बाप बर, छोड़ 'कांत' उन जात हें।।
होथे कउनो काम, करे का बिना मेहनत।
बइठे अजगर साँप, असन तैं डार देंह मत।।
बनिहौ 'कांत' सुजान, बेइमानी ला छोड़ौ।
इंसानियत इमान, संग तुम नाता जोड़ौ।।
बाढ़े अत्याचार के, पावत हन दुख देख लौ।
कोरोना के काट के, जल्दी दवा सरेख लौ।।
सूर्यकान्त गुप्ता, 'कांत'
सिंधिया नगर दुर्ग(छ.ग.)न
छंद खजाना म रचना ल जघा दे बर गुरुदेव अरुण निगम जी अउ भाई जितेन्द्र खैरझिटिया जी के सादर सप्रणाम अंतस ले आभार....🌹🌹🌹🙏🙏🙏
ReplyDeleteबहुत सुग्घर रचना बड़े भैयाजी। सादर प्रणाम
ReplyDeleteसादर आभार भाई...
Delete🙏🙏🙏🌹🌹
बड़ सुग्घर रचना भैयाजी
ReplyDeleteसादर धन्यवाद दीदी....
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