छप्पय छंद- विजेन्द्र वर्मा
जंगल
स्वार्थी होत समाज,कटत हे अब तो जंगल।
आरी चलथे घेंच,उहाँ कइसे हो मंगल।
लगे हवय सब लोग,मिटाएँ बर जी हस्ती।
अभी समे हे शेष,बचालव अपने बस्ती।
जंगल झाड़ी चीख के,अबड़ मचावय शोर जी।
अब तो झन काटव तुमन,देखव भविष्य ओर जी।
परदेश
जावव झन परदेश,बना लव अब परिपाटी।
इहे कमावँव खाव,खनव गा खंती माटी।
पखरा ला अब फोड़,करम ला इहेच जोड़व।
मिलके राहव आज,मया कोती मुँह मोड़व।
अइसन करलव काम तुम,जग मा बगरै नाँव जी।
जिनगी ला सिरजाय बर,गाँव बनय गा छाँव जी।
मितान
माटी मोर मितान,पीर जी सब के सहिथे।
सहिके घाम पियास,खुदे जी लाँघन रहिथे।
लाथे नवा बिहान,अन्न जग बर उपजाथे।
ए भुइँया के देव,सबो के कष्ट मिटाथे।
भेदभाव जानय नहीं,जन जन बर वो एक हे।
कतका करँव बखान जी,हमरो संगी नेक हे।
खेती बारी
खेती बारी देख,खुशी के मारे झूमय।
हरियर हरियर खेत,देख माटी ला चूमय।
पानी पसिया पेज,खेत मा धर के जावय।
करके अब तो चेत,काम बूता सरकावय।
आगे हवै अषाढ़ जी,सब झन बोथे धान गा।
जागिस सबके भाग अब,करथे काम किसान गा।
घुरुवा
घुरुवा मा ही डार,गाय गरवा के गोबर।
एखर खातू पाल,खेत बर अमृत बरोबर।
घुरुवा ला झन पाट,खाद गुणकारी बनथे।
हरियर खेती खार,पेड़ पउधा हा तनथे।
बारी मा घुरुवा बना,कचरा गोबर डार जी।
एखर खातू ले बने,होही फसल अपार जी।
गोबर
गोबर ला झन फेक,तुमन घुरुवा मा डालव।
समझव मत बेकार,खेत मा येला पालव।
जानव गोबर खाद,हवय कतका गुणकारी।
एखर सब उपयोग,करव जी बहुते भारी।
गोबर गरुवा गाय के,कतको आथे काम जी।
खेती बारी के फसल,देथे बढ़िया दाम जी।
विजेन्द्र वर्मा
नगरगाँव(धरसीवाँ)
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Monday, August 24, 2020
छप्पय छंद- विजेन्द्र वर्मा
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बहुत बढ़िया रचना सर जी
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ReplyDeleteसुग्घर रचना
ReplyDeleteबहुत सुन्दर सर जी
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