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Tuesday, June 16, 2020

कुण्डलिया छन्द - अजय अमृतांशु

कुण्डलिया छन्द - अजय अमृतांशु

"माटी"
चोला माटी के बने, झन कर तैं अभिमान।
मोर मोर करथस अबड़, हावय झूठी शान।।
हावय झूठी शान, अभी नइ समझे हावस।
का लेके तैं आय, नहीं कुछु ले के जावस।
पुण्य कमा ले थोर, अभी बरजत हँव तोला।
पानी मा घुर जाय, बने माटी के चोला।

"घाम"
हावय बाहिर घाम हा,कहत हववँ पतियाव।
घर मा बइठे रोज के, खूब कलिंदर खाव।।
खूब कलिंदर खाव, संग मा नींबू पानी।
जलजीरा अउ बेल, बचाही ये जिनगानी।
अतका करव उपाय,रोग लकठा झन आवै ।
घर मा करव अराम, घाम बाहिर मा हावय।

"नशा'
पीढ़ी दर पीढ़ी बढ़त, नशा पान के रोग।
तम्बाखू सिगरेट के, बढ़त हवय उपभोग।।
बढ़त हवय उपभोग, बुलावा केंसर देथे।
मान अभी भी बात, प्राण ला सिरतो लेथे।
बीड़ी अउ सिगरेट, मौत के बनथे सीढ़ी।
नशापान दे छोड़ , आज के नावा पीढ़ी।।

अजय अमृतांशु
भाटापारा, छत्तीसगढ़

2 comments:

  1. बहुत सुन्दर गुरुदेव

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  2. बहुत सुंदर कुंडलियाँ भैया जी

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