हरिगीतिका छन्द - श्री ज्ञानु दास मानिकपुरी
(1)
काखर भरोसा ला करवँ,संसार मा स्वारथ भरे।
मनखे कहाँ मनखे हवै,बूता अपन मनके करे।
अफसर बने नेता बने,हावै धरे सब लोभ ला।
करलवँ कमाई नेक के,सब छोड़ इरखा खोभ ला।
(2)
जिनगी सफल होवै नही,कखरो बिना सतकाम जी।
झन काम अइसन जी करो,होवय इहाँ बदनाम जी।
छोड़वँ अपन मनके भरम,करलवँ बने तुम काम ला।
हिरदै रखवँ श्रीराम ला,हरदम जपवँ जी नाम ला।
(3)
गुरु के चरन बंदन करौ,मेटै भरम यम जाल ला।
हिरदै बसाओ ज्ञान ला,सुग्घर अपन रख चाल ला।
दे सौंप नैया हाथ मा,माया लगे बाज़ार हे।
गुरु के कृपा बिन जान ले,नैया कहाँ के पार हे।
(4)
करबो जतन मिलके सबो, नइ काटबो हम पेड़ ला।
सजही तहाँ हर खेत हा, हरियर बनाबो मेड़ ला।।
मिलथे उहाँ छँइहा बने,जँह पेड़ के भरमार हे।
बड़ भाग ला सहरात हन,फल फूल बड़ रसदार हे।।
(5)
सुग्घर जिहाँ परिवार हे,रिश्ता नता के जोर हे।
छूटै नही बँधना कभू,बाँधे मया के डोर हे।
सुनता दिखत नइये इहाँ,चारों तरफ गा शोर हे।
पाबे कहाँ अब गॉव मा,सुन्ना गली अउ खोर हे।
(6)
सुन्ना गली अउ खोर हे,बाढ़े दुराचारी इहाँ।
बेटा लगावत दाँव हे,बइठे ददा देखत जिहाँ।
रिश्ता निभाही कोन हा,मन मा भरे अभिमान हे।
मनखे धरम भूले हवै,बइठे बने शैतान हे।
(7)
दाई बिचारी रोत हे,अँखियन धरे आँसू बहे।
बेटा बहू बोलै नही,कोंदी बने चुप दुख सहे।
दुनिया बने अँधरा हवै,कखरो नजर मा नइ दिखे।
कइसे जमाना देख के,कवि ज्ञानु रो रो के लिखे।
रचनाकार - श्री ज्ञानु दास मानिकपुरी
छत्तीसगढ़
(1)
काखर भरोसा ला करवँ,संसार मा स्वारथ भरे।
मनखे कहाँ मनखे हवै,बूता अपन मनके करे।
अफसर बने नेता बने,हावै धरे सब लोभ ला।
करलवँ कमाई नेक के,सब छोड़ इरखा खोभ ला।
(2)
जिनगी सफल होवै नही,कखरो बिना सतकाम जी।
झन काम अइसन जी करो,होवय इहाँ बदनाम जी।
छोड़वँ अपन मनके भरम,करलवँ बने तुम काम ला।
हिरदै रखवँ श्रीराम ला,हरदम जपवँ जी नाम ला।
(3)
गुरु के चरन बंदन करौ,मेटै भरम यम जाल ला।
हिरदै बसाओ ज्ञान ला,सुग्घर अपन रख चाल ला।
दे सौंप नैया हाथ मा,माया लगे बाज़ार हे।
गुरु के कृपा बिन जान ले,नैया कहाँ के पार हे।
(4)
करबो जतन मिलके सबो, नइ काटबो हम पेड़ ला।
सजही तहाँ हर खेत हा, हरियर बनाबो मेड़ ला।।
मिलथे उहाँ छँइहा बने,जँह पेड़ के भरमार हे।
बड़ भाग ला सहरात हन,फल फूल बड़ रसदार हे।।
(5)
सुग्घर जिहाँ परिवार हे,रिश्ता नता के जोर हे।
छूटै नही बँधना कभू,बाँधे मया के डोर हे।
सुनता दिखत नइये इहाँ,चारों तरफ गा शोर हे।
पाबे कहाँ अब गॉव मा,सुन्ना गली अउ खोर हे।
(6)
सुन्ना गली अउ खोर हे,बाढ़े दुराचारी इहाँ।
बेटा लगावत दाँव हे,बइठे ददा देखत जिहाँ।
रिश्ता निभाही कोन हा,मन मा भरे अभिमान हे।
मनखे धरम भूले हवै,बइठे बने शैतान हे।
(7)
दाई बिचारी रोत हे,अँखियन धरे आँसू बहे।
बेटा बहू बोलै नही,कोंदी बने चुप दुख सहे।
दुनिया बने अँधरा हवै,कखरो नजर मा नइ दिखे।
कइसे जमाना देख के,कवि ज्ञानु रो रो के लिखे।
रचनाकार - श्री ज्ञानु दास मानिकपुरी
छत्तीसगढ़
बहुत सुघ्घर सृजन हे ज्ञानु भाई
ReplyDeleteबहुत बहुत बधाई
आपके आशिष सदा मिलत रहै दीदी।सादर प्रणाम
Deleteवाह। ज्ञानु भाई सुग्घर हरिगीतिका छंद
ReplyDeleteसादर आभार सर।प्रणाम
Deleteवाह। ज्ञानु भाई सुग्घर हरिगीतिका छंद
ReplyDeleteसादर हिरदै ले आभार सर
Deleteबहुत सुग्घर,हरिगीतिका छंद ,ज्ञानुभैया जी।बधाई अउ शुभकामना।
ReplyDeleteसादर धन्यवाद सर।प्रणाम
Deleteसादर धन्यवाद सर।प्रणाम
Deleteपरम् पूज्य श्रद्धेय गुरुदेव आभार।सादर चरण वन्दन
ReplyDeleteपरम् पूज्य श्रद्धेय गुरुदेव आभार।सादर चरण वन्दन
ReplyDeleteवाह वाह्ह ज्ञानु जी हरिगीतिका छन्द में जीवन दर्शन के सुग्घर दिग्दर्शन।आपके गहिर चिंतन झलकत हे। हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteसादर आभार सर।प्रणाम
Deleteसादर आभार सर।प्रणाम
Deleteवाह्ह्ह्ह्ह् भइया जी बहुत सुग्घर रचना
ReplyDeleteसादर धन्यवाद सर
Deleteबड़ सुग्घर भाव ल धरे हे आपके हरिगीतिका छंद मन ज्ञानु सर जी।
ReplyDeleteबहुत बहुत बधाई।सुन्दर सृजन वाह्ह्ह।
सादर धन्यवाद सर
Deleteसादर धन्यवाद सर
Deleteबहुत बढ़िया रचना ज्ञानू भाई बहुत बहुत बधाई
ReplyDeleteसादर धन्यवाद दीदी
Deleteसादर धन्यवाद दीदी
Deleteबहुते बढ़िया हरिगीतिका छंद के सिरजन हे ज्ञानु जी।
ReplyDeleteसादर धन्यवाद सर
Deleteसादर धन्यवाद सर
Deleteवाह वाह बहुँत ही सुग्घर हरिगीतिका छंद ज्ञानु भाई।बधाई।
ReplyDeleteसादर धन्यवाद सर।प्रणाम
Deleteसुघ्घर हरिगीतिका छंद।बधाई भैया।
ReplyDeleteज्ञानु भईया बधाई हो
ReplyDeleteज्ञानु भईया बधाई हो
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