छप्पय छंद- दिलीप कुमार वर्मा
कलजुग
धरम करम के बात, आजकल कहाँ सुहाथे।
जेला जे रुच जाय, तेन तेला अब खाथे।
नइ हे पूजा पाठ, मिलय नइ दान करइया।
ठग होगे भरमार, खरा गे कलजुग भइया।
देख ताक रइहव सबो, अजब जमाना आय जी।
हंस इहाँ दाना चुगय, कँउवा मोती खाय जी।
गाँव
माटी के दीवार, खदर के छान्ही राहय।
मया पिरित के गाँव, देवता रहना चाहय।
नदिया झिरिया ताल, रहय बरछा अमरइया।
खेत खार खलिहान, कुँआ बौली तक भइया।
अब वो घर ना द्वार हे, नइ हे मया दुलार जी।
लालच सब ला पेर दिस, होगे बण्ठाधार जी।
बादर
बादर घपटत आय, छाय गे कारी कारी।
तुरते सुरुज लुकाय, होय दिन मा अँधियारी।
गरजन के हे शोर, चमक चम बिजुरी चमके।
लगथे गाज गिराय, कड़क के भारी दमके।
बादर फट जाही लगे, अइसन होवय शोर जी।
बरसय पानी जोर से, नदी बने हे खोर जी।
पानी
पानी हे अनमोल, पता गरमी मा चलथे।
जानत हव हालात, जिंदगी कइसे पलथे।
आये हे बरसात, नदी नरवा ला छेंकव।
राखव भर के बांध, समुद्दर मा झन फेंकव।
जिनगी के आधार ये, साँच कहत हँव जान लव।
पानी बिन संसार मा, जीवन नइ हे मान लव।
चिखला
चिखला ला झन देख, जान का ओखर गुन हे।
फदके हवय किसान, काम मा बहुत बिधुन हे।
पानी माटी डार, मता चिखला ला सानय।
उपजाये बर धान, किसनहा गुन ला जानय।
जतके चिखला सानबे, ततके हो गुनवान जी।
गोबर खातू डार के, खूब उगावव धान जी।
पेंड़
धरती के श्रृंगार , पेंड़ हर सुग्घर करथे।
जिनगी कर खुशहाल, सबो के दुख तक हरथे।
हवा करत हे साफ, फूल फर लकड़ी देथे।
करय प्रदूषण दूर, जहर सब अंतस लेथे।
बरसा के यदि चाह हे, सुग्घर पेंड़ लगाव जी।
धरती के अछरा बने, जुगजुग ले हरियाव जी।
रचनाकार- दिलीप कुमार वर्मा
बलौदाबाजार छत्तीसगढ़
कलजुग
धरम करम के बात, आजकल कहाँ सुहाथे।
जेला जे रुच जाय, तेन तेला अब खाथे।
नइ हे पूजा पाठ, मिलय नइ दान करइया।
ठग होगे भरमार, खरा गे कलजुग भइया।
देख ताक रइहव सबो, अजब जमाना आय जी।
हंस इहाँ दाना चुगय, कँउवा मोती खाय जी।
गाँव
माटी के दीवार, खदर के छान्ही राहय।
मया पिरित के गाँव, देवता रहना चाहय।
नदिया झिरिया ताल, रहय बरछा अमरइया।
खेत खार खलिहान, कुँआ बौली तक भइया।
अब वो घर ना द्वार हे, नइ हे मया दुलार जी।
लालच सब ला पेर दिस, होगे बण्ठाधार जी।
बादर
बादर घपटत आय, छाय गे कारी कारी।
तुरते सुरुज लुकाय, होय दिन मा अँधियारी।
गरजन के हे शोर, चमक चम बिजुरी चमके।
लगथे गाज गिराय, कड़क के भारी दमके।
बादर फट जाही लगे, अइसन होवय शोर जी।
बरसय पानी जोर से, नदी बने हे खोर जी।
पानी
पानी हे अनमोल, पता गरमी मा चलथे।
जानत हव हालात, जिंदगी कइसे पलथे।
आये हे बरसात, नदी नरवा ला छेंकव।
राखव भर के बांध, समुद्दर मा झन फेंकव।
जिनगी के आधार ये, साँच कहत हँव जान लव।
पानी बिन संसार मा, जीवन नइ हे मान लव।
चिखला
चिखला ला झन देख, जान का ओखर गुन हे।
फदके हवय किसान, काम मा बहुत बिधुन हे।
पानी माटी डार, मता चिखला ला सानय।
उपजाये बर धान, किसनहा गुन ला जानय।
जतके चिखला सानबे, ततके हो गुनवान जी।
गोबर खातू डार के, खूब उगावव धान जी।
पेंड़
धरती के श्रृंगार , पेंड़ हर सुग्घर करथे।
जिनगी कर खुशहाल, सबो के दुख तक हरथे।
हवा करत हे साफ, फूल फर लकड़ी देथे।
करय प्रदूषण दूर, जहर सब अंतस लेथे।
बरसा के यदि चाह हे, सुग्घर पेंड़ लगाव जी।
धरती के अछरा बने, जुगजुग ले हरियाव जी।
रचनाकार- दिलीप कुमार वर्मा
बलौदाबाजार छत्तीसगढ़
बहुत सुग्घर छप्पय
ReplyDeleteबहुत सुग्घर गुरुदेव जी
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