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Tuesday, January 21, 2020

सार छंद- दिलीप कुमार वर्मा

सार छंद- दिलीप कुमार वर्मा

नाम रखे ले कुछ नइ होवय, काम करे ले होथे।
भाग भरोसे जे मन राहय, ते मन निशदिन रोथे।

नाम रखाये ज्वाला सिंह अउ, जाड़ देख थर्राये।
ओढ़ रजाई सुते हवय ओ, बाहिर तक नइ आये। 

राम नाम राखे ले भइया, राम कहाँ बन पाथे।
करम करे रावण के जइसे, जेल म रोटी खाथे।

शांति नाम बड़ पावन लागे,लगथे सुख बरसाही।
हाँव हाँव दिनरात करत हे, सुमता कइसे लाही।

रूपवती मा रूप कहाँ हे, बिटबिट लागे कारी।
आँख फार के देखत रहिथे, निशदिन देथे गारी।

भीख मांग के करे गुजारा, नाम अमीर रखाये।
धन दौलत के मालिक बनगे, जे गरीब कहलाये।

विद्या सागर अनपढ़ भइगे, कुछ ओला नइ आवय।
परबुधिया कस काम करत हे, गारी तक ओ खावय।

पहलवान के हालत खस्ता, ऊपर देख चढ़ाई।
मँय नइ जावँव कहिके बइठे, जय हो डोंगर दाई।

वीर सिंह के पोटा काँपय, गोल्लर देख लड़ाई ।
हमरो कोती झन आ जावय, कहिथे भागव भाई। 

बाई मोर सुशीला निच्चट, बनगे हवय कसाई।
सास ससुर ला ताना देवय, मोला मारय भाई।

जब दिलीप हे नाम मोर ता, का राजा बन पाहूँ।
माँजत रहिथौं टठिया बरतन, कइसे नाम कमाहूँ।

रचनाकार- दिलीप कुमार वर्मा
बलौदाबाजार छत्तीसगढ़

6 comments:

  1. जोरदार रचना के बधाई झोंकव सर

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  2. बहुत सुन्दर रचना गुरुदेव

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  3. बधाई हो गुरुदेव,बहुत सुग्घर रचना,💐💐👍👌👏

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  4. बहुतेच सुग्घर गुरुदेव

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