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Wednesday, May 13, 2020

रोला छंद- ईश्वर आरुग

रोला छंद
झरर झरर हे झाँझ, सुखावत काया लागे ।
देख सुरुज के ताव, छाँव हा पल्ला भागे ।
बासी कड़ही संग, मिठावय चटनी कुर हा ।
मंझन करव अराम, कहय मन हा बइसुरहा ।


आँखि कान ला खोल, जान दुनियादारी ला ।
खोजत हस भगवान, देख ले महतारी ला ।
चंदन जैसन जान, देश के माटी ला तँय ।
करले बने हियाव, छोड़ के तू तू मँय मँय ।

रखही जेन सकेल, बढ़ोही अपने पूँजी ।
नता मया ला बाँध, राखही सुख के कुंजी ।
करही जेन हियाव, ओखरे धन सकलाही।
बबा लगाही पेंड़, तभे फर नाती खाही ।

जात-पात के रोग, देश ले कब मिट पाही ।
ऊँच नीच के भेद, बता दे कब दुरिहाही ।
मनखेपन के वास, बता कब अन्तस् होही ।
मया के बिजहा बोल, कोन हा जग मा  बोही ।

नशा लमाये पाँव, देख लव गाँव शहर मा ।
फइले हे बैपार, मरत हे लोग जहर मा ।
करही नशा जवान, बुता ला कोन कमाही ।
माते रही किसान, कोन दाना उपजाही ।

उसनावत हे चाम, घाम मा चट चट जरथे ।
सुरता आवत राम, काम हा भारी लगथे ।
दिखय नही अब छाँव, कटय अड़बड़ रुख राई ।
चलय जेठ के ताव, सहावय कइसे भाई ।

आडम्बर के गोठ, होत हे बिरथा चरचा ।
छूना हवे अगास, टाँग के नीबू मिरचा ।
बाबा संत समाज, सिखोवय सुम्मत पहिली ।
अब करथे बैपार, भरत हे अपने थैली ।

बाजा गुदुम सुहाय, फेर अब डी जे आगय ।
देखवटी संसार, नकल के पाछू भागय ।
पहिली खावय बइठ, बाँटके मांदी मनभर।
खड़े खड़े पगुराय, चलय अब बफे घरोघर ।


पटवा काँशी जोर, बबा हा ढेरा आँटय ।
लकड़ी लावय काट, खुरा अउ पाटी छाँटय ।
बरदखिया हे खाप, बने हे गजब मचोली ।
नाती बुढ़हा संग,  बइठ के करय ठिठोली ।

ईश्वर साहू 'आरुग'

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