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Saturday, April 30, 2022

मजदूर दिवस विशेष छंदबद्ध कवितायें(प्रस्तुति- छंद के छ परिवार)


 मजदूर दिवस विशेष छंदबद्ध कवितायें(प्रस्तुति- छंद के छ परिवार)


रोला छंद


मजबूर मैं मजदूर


करहूँ का धन जोड़, मोर तो धन जाँगर ए।

रापा गैंती संग, मोर साथी नाँगर ए।

मोर गढ़े मीनार, देख लौ अमरे बादर।

मोर धरे ए नेंव, पूछ लौ जाके घर घर।


भुँइया ला मैं कोड़, ओगराथौं नित पानी।

जाँगर रोजे पेर, धरा ला करथौं धानी।

बाँधे हवौं समुंद, कुँआ नदिया अउ नाला।

बूता ले दिन रात, हाथ मा उबके छाला।


घाम जाड़ आषाढ़, कभू नइ सुरतावौं मैं।

करथौं अड़बड़ काम, तभो फल नइ पावौं मैं।

हावय तन मा जान, छोड़ दौं महिनत कइसे।

धरम करम ए काम, पूजथौं देवी जइसे।


चिरहा ओन्हा ओढ़, ढाँकथौं करिया तन ला।

कभू जागही भाग, मनावत रहिथौं मन ला।

रिहिस कटोरा हाथ, देख वोमा सोना हे।

भूख मरौं दिन रात, भाग मोरे रोना हे।


आँखी सागर मोर, पछीना यमुना गंगा।

झरथे झरझर रोज, तभे रहिथौं मैं चंगा।

मोर पार परिवार, तिरिथ जइसन सुख देथे।

फेर जमाना कार, अबड़ मोला दुख देथे।


थोर थोर मा रोष, करैं मालिक मुंसी मन।

काटत रहिथौं रोज, दरद दुख डर मा जीवन।

मिहीं बढ़ाथौं भीड़, मिहीं चपकाथौं पग मा।

अपने घर ला बार, उजाला करथौं जग मा।


पाले बर परिवार, नाँचथौं बने बेंदरा।

मोला दे अलगाय, बदन के फटे चेंदरा।

कहौं मनुष ला काय, हवा पानी नइ छोड़े।

ताप बाढ़ भूकंप, हौसला निसदिन तोड़े।।


सच मा हौं मजबूर, रोज महिनत कर करके।

बिगड़े हे तकदीर, ठिकाना नइहे घर के।

थोरिक सुख आ जाय, विधाता मोरो आँगन।

महूँ पेट भर खाँव, रहौं झन सबदिन लाँघन।।


मोर मिटाथे भूख, रात के बोरे बासी।

करत रथौं नित काम, जाँव नइ मथुरा कासी।

देखावा ले दूर, बिताथौं जिनगी सादा।

चीज चाहथौं थोर,  मेहनत मागौं जादा।


आँधी कहुँती आय, उड़ावै घर हा मोरे।

छीने सुख अउ चैन, बढ़े डर जर हा मोरे।

बइठ कभू नइ खाँव, काम मैं मांगौं सबदिन।

करके बूता काम, घलो काँटौं दिन गिनगिन।


जीतेंद्र वर्मा"खैरझिटिया"

बालको(कोरबा)

9981441795

मजदूर दिवस अमर रहे,,,,

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*हरिगीतिका छंद - बनिहार*


बनिहार मन के दुःख ला, अब कोन देखत हे बता।

कइसन जमाना आय हे, सब टूट गे रिश्ता नता।।

जाथे कमाये बर सबो, घर छोड़ के परदेश मा।

मनखे अपन ये भोगथे, जिनगी गरीबी क्लेश मा।।


दुनिया रचइया देखले, अब झोपड़ी के हाल ला।

रहिथे सड़क के तीर मा, छाए रथे तिरपाल ला।।

भूखे पियासे रात दिन, करथे गजब ये काम ला।

टावर बनाथे अउ महल, डर्राय नइ जी घाम ला।।


बेटा  महूँ  बनिहार के, ईंटा  उठाथँव  हाथ मा।

गारा मताके के बोहथँव, दाई - ददा के साथ मा।।

सब पेट के खातिर इहाँ, छोटे कमावै अउ बड़े।

नइ लाज लागै थोरको, धनवान देखयँ जी खड़े।।


रचनाकार:-

बोधन राम निषादराज"विनायक"

सहसपुर लोहारा,जिला-कबीरधाम(छ.ग.)

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: सोरठा छंद


भूख प्यास मजदूर, करथे बूता रातदिन। 

जीये बर मजबूर, तंगहाल मा देखलौ।।


स्वारथ मा हे लोग, कोन समझथे दुख इँखर।

लगे हवै का रोग, चूसत दुनिया खून हे।।


सपना लगे अँजोर, अँधियारी घपटे हवै।

नवा सुरुज सुख भोर, कब उगही जिनगी इँखर ।।


सिर मा नइये छाँव, हाल बुरा मजदूर के। 

उँखरा हावय पाँव, कपड़ा तन मा नइ घलो।।


काम इँमन चुपचाप, भूख प्यास रहिथे करत।

जिनगी ले संताप, कइसे होही दूर अब।।


ज्ञानु

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 मैं बनिहार ( आल्हा छंद )

बड़े बिहनिया जाथँव संगी,काम बुता मा मैंहर रोज।

घर के संसो छाये रहिथे,जाके करथँव दिनभर खोज।।


एती ओती जाके करथँव,काम बुता ला मैं बनिहार।

जब थक हारे घर मा आथँव,हो जाथे गा बड़ अँधियार।।


बड़ करलाई हावय भइया, देखव लइका मनके मोर।

रोजी रोटी बर मैं लड़थँव,अपन कमाथँव जाँगर टोर।।


घाम प्यास ला मैं नइ देखँव,करथँव काम बुता दिन रात।

लाँघन भूखन झन राहय जी,लइका मनहा सोचँव बात।।


भरे मझनिया करते रहिथँव,नही कभू मैं खोजँव  छाँव।

लक लक तीपे रहिथे भुइयाँ,चट ले जरथे मोरो पाँव।।


कभू खनव मैं माटी गोदी,अउ ढेला पथरा ला फोड़।

महल अटारी घलो बनाथँव,रच रच ईंटा मैंहर जोड़।।


टप टप चूहे भले पसीना,राहय खुश मोरो परिवार।

जउन बुलाही काम बुता मा,जाके करहूँ मैं बनिहार।।


रचनाकार:- राजेश कुमार निषाद ग्राम चपरीद (समोदा) जिला रायपुर छत्तीसगढ़

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 बनिहार (सार छंद गीत)

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मैं मजूर बनिहार कहाथँव, मिहनत के गुन गाथँव। 

आथँव खाली रहिथँव खाली, जग ले खाली जाथँव। ।

मिहनत ले चतवारँव सब झन के रद्दा के काँटा। 

नइ देखँव मैं मोर भाग मा, सुख दुख के का बाँटा। ।

नइ सोचँवआघू पाछू बस, जाँगर टोर कमाथँव।

आथँव खाली----

महीं बनावँव महल अटारी, सड़क नहर अउ पुलिया। 

मोर परिश्रम के मारे ले, बदलै जग के हुलिया। ।

भरँव तिजोरी कतको झन के,खुद नँगरा रहि जाथँव।

आथँव खाली-----

मोर बुता ले सब सुख पाथें, पेट सबो के भरथें। 

मोर पछीना के गंगा मा, दुनिया सरलग तरधें। ।

भगीरथ भले कहाथँव मैंहा, कहाँ मान  धन पाथँव।

आथँव खाली------


दीपक निषाद---लाटा (बेमेतरा)

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धन धन तैं मजदूर किसान।

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धन धन तैं मजदूर किसान ।

मेहनती सच्चा इंसान।

जय जय जय जय वीर जवान।


 किसम किसम के अन उपजाय।

 सरी जगत के भूख मिटाय।

हलधरिया नइ कभू थिराय।

 फेर अपन हक ला नइ पाय।

 चुहक डरिन तोला धनवान।

 धन धन तैं मजदूर किसान।

मेहनती सच्चा इंसान।

जय जय जय जय वीर जवान।


 मिलै नहीं रोजी भरपूर।

 तेकर सेती हे मजबूर।

 त्राहि-त्राहि करथे मजदूर ।

सजा भुगतथे बिना कसूर ।

जिनगी हावै जेल समान।

 धन धन तैं मजदूर किसान।

मेहनती सच्चा इंसान।

जय जय जय जय वीर जवान।


 सरी जिनिस ला जे  सिरजाय।

 जे हा रेल जिहाज बनाय।

 ऊँचा ऊँचा महल उठाय।

 सुख-सुविधा बर वो लुलवाय।

 कारीगर के मरे बिहान ।

धन धन तैं मजदूर किसान।

मेहनती सच्चा इंसान।

जय जय जय जय वीर जवान।


 चिंता मा झटके बनिहार।

 फुन्नावै शोषक बटमार।

 सत्ता होगे हवै लचर।

झूठा वादा के बौछार।

हे गरीब हा लहू लुहान।

 धन धन तैं मजदूर किसान ।

मेहनती सच्चा इंसान।

जय जय जय जय वीर जवान।


'बादल' के कहना हे फेर।

 समे बदलही नइये देर।

  जाग जही मजदूर किसान।

 होही तभ्भे नवा बिहान।

 सबले हावच तहीं महान।

 धन धन तैं मजदूर किसान।

मेहनती सच्चा इंसान।

जय जय जय जय वीर जवान।


चोवा राम 'बादल'

हथबंद, छत्तीसगढ़

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 लावणी छंद 

शीर्षक-मजदूर 


मँय मजदूरी करथौं भइया,

दुनिया ला सिरजाये हँव।

पेज-पसइया पी के मँय हा,

जाँगर सदा चलाये हँव।।1


जंगल झाड़ी नदी पहाड़ी,

सब ला मँय सुघराये हँव।

पेट भरे बर मँय दुनिया के,

धान घलो उपजाये हँव।।2


गारा पखरा जोरे टोरे,

तन ला अपन तपाये हँव।

गाँव गली अउ शहर घलो ला,

संगी महीं बसाये हँव।।3


मोर करम ले दुनिया बदले,

सब ला कथा सुनाये हँव।

सगरी करम करे हँव संगी,

एक्को नहीं बचाये हँव।।4


बाढ़ करे हँव ये दुनिया के,

मँय मजदूर कहाये हँव।

का कुरिया का महल अटारी,

सब ला महीं बनाये हँव।।5


सबो कारखाना मा जाके,

लहू अपन बोहाये हँव।

डबरा डिलवा पाट पाट के,

रद्दा घलो बनाये हँव।।6


सब खदान मा छाती पेरँव,

करिया ला उजराये हँव।

हीरा मोती सोना चाँदी,

कतको ला चमकाये हँव।।7


नहर कुआँ तरिया बाँधा मा,

मँय हा  पानी लाये हँव।

मोर बाँह मा टिके जमाना,

दुनिया पार लगाये हँव।।8


द्वारिका प्रसाद लहरे "मौज"

कवर्धा छत्तीसगढ़

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 *बनिहार.*(मजदूर) 


जाँगर टोर कमाथँव मैं हर, माटी के बनिहार |

मोर मेहनत धरम करम हे, जिनगी के आधार ||


किसम किसम के चीज बनइया,मैं जग सिरजनहार |

मोर हाथ ले गइस बसाये, ये जम्मो संसार ||


ईंटा ईंटा जोर अटारी, देथँव मैं हर तान |

जेमा छोटे बड़े बिराजै, मनखे अउ भगवान ||


दगदग करत कारखाना मा, लोहा ला टघलाँव |

छोटे बड़े मशीन बना के, आगु देश बढ़ाँव ||


पढ़ लिख इंजीनियर रूप धर, गढ़थँव मैं हर देश |

वैज्ञानिक डाक्टर हितवा के, धरँव कई ठन वेश ||


सरहद सैनिक बन के गरजँव,अपन खून बोहाँव |

सेवा करथँव माटी के मैं, दूलरु बेटा ताँव ||


जब जब लेवँव जनम इहाँ मैं, धरँव रूप बनिहार |

सेवा महतारी के निशदिन, करँव लहू ओगार ||


अशोक कुमार जायसवाल

    भाटापारा

सत्र- 13

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 *दोहा छंद*

बनिहार 


हाँवव मैं बनिहार गा, करथँव बूता काम।

कतको बूता मैं करँव, उचित मिलय नइ दाम।। 


खाके बासी घाम मा, करथँव दिन भर काम।

रथँव मगन मँय काम मा, करँव नहीं आराम।। 


संगी जाँगर ले मोर गा , बनगे बड़े मकान।

छितका कुरिया मा रथँव, दे हँव सब ला शान।। 


मँय पानी ओगारथँव, बनके गा बनिहार।

बूता करथँव रात दिन, तभो हवँव लाचार।।

*अनुज छत्तीसगढ़िया*

 *पाली जिला कोरबा*

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: मजदूरी अउ मजबूरी


हाड़ा टोर पेरथे जाँगर, अन्न जऊन उपजाथे।

माटी के कुरिया ले लेके महल खड़ा कर जाथे।।

साफ सफाई जेकर जिम्मा, कचरा उही हटाथे।

गली खोर ले गाँव शहर तक सुंदर स्वच्छ बनाथे।।

कउन जघा हावै जी अइसन मिहनत नही ज़रूरी।

देस तरक्की करही कइसे बिन मिहनत मजदूरी।।

                     

जिंदगी मा जान लौ जी आलसी के का दसा।

काम के ना धाम के वो झेलथे जी हादसा।।

आय हौं का काम सेती सोचथन का हम कभू।

चाह तो हे खाय ला दै फोकटे मा ए प्रभू।।


पाय मानुष तन हवन  हम ज्ञान के वरदान पा।

पढ़ बने झन सोच जी सरकार ले अनुदान पा।।

घूम झन तैं भीख माँगत,  पढ़ पढ़ावत ले कमा।

पाल घर परिवार अउ कर चार पइसा ला जमा।। 


बिना मेहनत के होथे का, दुनिया के एको ठन काम।

तभो देखथन मजदूरी ला,मजबूूरी के करत प्रनाम।।

मजदूरी से महल अटारी, नाता ला रखथे बड़ दूर।

अन्न बसन घर सबला देथे, कलकुत मा रहिके मजदूर।।


जय जोहार....


सूर्यकान्त गुप्ता

सिंधिया नगर दुर्ग(छ.ग.)

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: *किसान मजदूर  मन ला समर्पित  दोहा* 


बरसत मूसर धार मा, बोंथे कोदो धान।

जाड़ घाम बरसात ले, हारै नहीं किसान।।

बइला ला ललकार के, नाँगर धरके खाँध।

जावत हवय किसान हर, मूँड़ी फेंटा बाँध ।।

बलहा बइला कोढ़िया, धौंरा बड़ बलवान।

नाँगरजोत्ता धाकड़ा, लहुटे पहेलवान ।।

बन दूबी ला खन सबो, चातर करके खेत।

बतर पाग के देख के, बीजा बोंवत नेत।।

सावन भादो के घरी, मुँही मेड़ अउ पार ।

खेत-खार पानी मड़ा, गोड़ धोत बनिहार।।

जात कमइया खेत मा, धरके बासी पेज।

रूख छाँव थक माँद के, सुतगे काँदी सेज।।

बन उखान मूठा धरत, पाना ला सहलात।

मया देख बनिहार के, बाली माथ नवात ।।

दररत ले बूता करत, जाके खेत किसान।

हाड़ा हपटत रात दिन, तब्भे उपजत धान ।।

भुँइया के भगवान ला, करत देख किरवार।

लहसे बाली धान के, करत हवय जोहार।। 


शोभामोहन श्रीवास्तव

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मजबूरी मा मजदूरी 


मजबूरी मा मजदूरी हर, कहाँ बने मिल पाथे। 

शोषण होथे बपुरा मन के, जिनगी सबो पिसाथे। 


दिनभर काम कराके पइसा, देवत हें दू आना। 

पेट बिकाली के मजबूरी, लूटत आज जमाना।  

पसिया पीके काम चलावयँ, पेट भरे कब पाथे। 

शोषण होथे बपुरा मनके, जिनगी सबो पिसाथे।


छोड़ गाँव कतको जावत हें, पैसा बहुत कमाबो। 

आधा रखबो घर के खातिर, अउर पेट भर खाबो। 

कुछ मन वापस आवत हें अउ, कुछ बँधुवा रह जाथे।  

शोषण होथे बपुरा मनके, जिनगी सबो पिसाथे।


शहर जाय कुछ धंधा खोलयँ, पइसा चार कमावयँ। 

पर कानूनी डंडा खाके, तितर बितर हो जावयँ।  

रोज बनावयँ रोज उजाड़यँ, कहाँ ठहर उन पाथे। 

शोषण होथे बपुरा मनके, जिनगी सबो पिसाथे। 


अभी हाल कुछ अइसन हे अउ, बाढ़त हवय अबादी। 

अपने पाँव कुल्हाड़ी मारे, करत हवय बरबादी। 

खाये बर घर दाना नइ हे, लइका चार बियाथे। 

कतको रोज कमावयँ तब ले, कहाँ सम्हल फिर पाथे। 


रचनाकार- दिलीप कुमार वर्मा 

बलौदाबाजार

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गीतिका छंद-जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

हे गजब मजबूर ये,मजदूर मन हर आज रे।
पेट बर दाना नहीं,गिरगे मुड़ी मा गाज रे।।
रोज रहि रहि के जले,पर के लगाये आग मा।
देख लौ इतिहास इंखर,सुख कहाँ हे भाग मा।।

खोद के पाताल ला,पानी निकालिस जौन हा।
प्यास मा छाती ठठावत,आज तड़पे तौन हा।
चार आना पाय बर, जाँगर खपावय रोज के।
सुख अपन बर ला सकिस नइ,आज तक वो खोज के।

खुद बढ़े कइसे भला,अउ का बढ़े परिवार हा।
सुख बहा ले जाय छिन मा,दुःख के बौछार हा।
नेंव मा पथरा दबे,तेखर कहाँ होथे जिकर।
सब मगन अपनेच मा हे,का करे कोनो फिकर।

नइ चले ये जग सहीं,महिनत बिना मजदूर के।
जाड़ बरसा हा डराये, घाम देखे घूर के।
हाथ फोड़ा चाम चेम्मर,पीठ उबके लोर हे।
आज तो मजदूर के,बूता रहत बस शोर हे।।

ताज के मीनार के,मंदिर महल घर बाँध के।
जे बनैया तौन हा,कुछु खा सके नइ राँध के।
भाग फुटहा हे तभो,भागे कभू नइ काम ले।
भाग परके हे बने,मजदूर मनके नाम ले।।

दू बिता के पेट बर,दिन भर पछीना गारथे।
काम करथे रात दिन,तभ्भो कहाँ वो हारथे।
जान के बाजी लगा के,पालथे परिवार ला।
पर ठिहा उजियार करथे,छोड़ के घर द्वार ला।

आस आफत मा जरे,रेती असन सुख धन झरे।
साँस रहिथे धन बने बस,तन तिजोरी मा भरे।
काठ कस होगे हवै अब,देंह हाड़ा माँस के।
जर जखम ला धाँस के,जिनगी जिये नित हाँस के।

जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को,कोरबा(छग)

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आल्हा छन्द - जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया

गरमी घरी मजदूर किसान

सिर मा ललहूँ पागा बाँधे,करे  काम मजदूर किसान।
हाथ मले बैसाख जेठ हा,कोन रतन के ओखर जान।

जरे घाम आगी कस तबले,करे काम नइ माने हार।
भले  पछीना  तरतर चूँहय,तन ले बनके गंगा धार।

करिया काया कठवा कस हे,खपे खूब जी कहाँ खियाय।
धन  धन  हे  वो महतारी ला,जेन  कमइया  पूत  बियाय।

धूका  गर्रा  डर  के  भागे , का  आगी  पानी  का  घाम।
जब्बर छाती रहै जोश मा,कवच करण कस हावै चाम।

का मँझनी का बिहना रतिहा,एके सुर मा बाजय काम।
नेंव   तरी   के  पथरा  जइसे, माँगे  मान  न माँगे नाम।

धरे  कुदारी  रापा  गैतीं, चले  काम  बर  सीना तान।
गढ़े महल पुल नँदिया नरवा,खेती कर उपजाये धान।

हाथ  परे  हे  फोरा  भारी,तन  मा  उबके हावय लोर।
जाँगर कभू खियाय नही जी,मारे कोनो कतको जोर।

देव  दनुज  जेखर  ले  हारे,हारे  धरती  अउ  आकास।
कमर कँसे हे करम करे बर,महिनत हावै ओखर आस।

उड़े बँरोड़ा जरे भोंभरा,भागे तब मनखे सुखियार।
तौन  बेर  मा  छाती  ताने,करे काम बूता बनिहार।

माटी  महतारी  के खातिर,खड़े पूत मजदूर किसान।
महल अटारी दुनिया दारी,सबे चीज मा फूँकय जान।

मरे रूख राई अइलाके,मरे घाम मा कतको जान।
तभो  करे माटी के सेवा,माटी  ला  महतारी मान।

जगत चले जाँगर ले जेखर,जले सेठ अउ साहूकार।
बनके  बइरी  चले पैतरा,मानिस नहीं तभो वो हार।

धरती मा जीवन जबतक हे,तबतक चलही ओखर नाँव।
अइसन  कमियाँ  बेटा  मनके, परे  खैरझिटिया हा पाँव।

जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को(कोरबा)
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दुर्मिल सवैया-मजदूर

मजदूर रथे मजबूर तभो दुख दर्द जिया के उभारय ना।
पर के अँगना उजियार करे खुद के घर दीपक बारय ना।
चटनी अउ नून म भूख मिटावय जाँगर के जर झारय ना।
सिधवा कमियाँ तनिया तनिया नित काज करे छिन हारय ना।

जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को,कोरबा(छग)
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1 comment:

  1. बहुत सुग्घर संकलन गुरुदेव

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